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Saturday, 21 January 2012


जिंदगी पाँव में घुँघरू बंधा देती है
जिंदगी पाँव में घुँघरू बंधा देती है
जब चाहे जैसे चाहे नचा देती है।

सुबह और होती है शाम कुछ और
गम कभी ख़ुशी के नगमें गवा देती है।

कहती नहीं कुछ सुनती नहीं कुछ
कभी कोई भी सजा दिला देती है।

चादर ओढ़ लेती है आशनाई की
हंसता हुआ चेहरा बुझा देती है।

चलते चलते थक जाती है जिस शाम
"फरीद" मुसाफिर को कहीं भी सुला देती है।

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