कल के रहजन बन गये शहरयार, देखिए,
वैशाखियों पे चल रही ये सरकार, देखिए,,
तारीकियाँ, मायूसियाँ, तबाहियाँ और बलाएँ,
बह रही इस मुल्क में कैसी बयार देखिए,,
दुकान सजाये बैठे हैं सदाक़तो ईमान बेचने,
रिश्वतों पे चल रहा सारा कारोबार देखिए,,
किस मुक़ाम पे जा पहुँची तर्जे सियासत यहाँ,
हुकूमतों में बैठे जम्हूरियत के ठेकेदार देखिए,,
हदे निगाह तक है बस वही सूरत-ए-हालात,
झूठी तसल्लियों पे बैठे है कितने बेदार देखिए,,
सियासत के खु़दाओं तक पहुँचती नहीं अब सदा,
दब गयी फ़ाक़ों में आवाम की पुकार देखिए,,
हर दिन बदल जाती है यहाँ शर्ते जिन्दगानी,
बन गया यहाँ आदमी कितना लाचार, देखिए...
साभार रचनाकार श्री हिमकर श्याम
किसी और की रचना अपना बना सबके सामने पेश करना सरासर गलत है. यह नैतिकता के खिलाफ है और इसे किसी भी कीमत पर जायज़ नहीं ठहराया जा सकता. यह रचना श्री हिमकर श्याम की है जो वेब-पत्रिका 'साहित्य शिल्पी' में ‘बैसाखियों पे चल रही ये सरकार, देखिए’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी है और प्रवक्ता पर भी उपलब्ध है. कई प्रिंट पत्रिकाओं में भी यह रचना प्रकाशित हो चुकी है. अपनी भूल सुधारने के लिए आप या तो साभार के रूप में रचनाकार का नाम डाल दें या इसे अपने ब्लॉग से हटा लें. आपके इस कृत्य से न सिर्फ आपकी छवि धूमिल होगी बल्कि मूल रचनाकार को भी आहत पहुंचेगा.
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