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Thursday 8 March 2012

Iqbal Ahmad-ज़हन में चेहरा कोई बनता बिगड़ता रह गया


Iqbal Ahmad
ज़हन में चेहरा कोई बनता बिगड़ता रह गया = 
ध्यान फिर रुखसत हुआ फिर दर्द तनहा रह गया 

छत जी जानिब छुप गया फिर चाँद आधी रात का =
फिर मेरा आँगन, मेरा बिस्तर अकेला रह गया 
आंधियां फिर बादबानों को उड़ा कर ले गईं =
फिर मेरी कश्ती में मेरे साथ दरया रह गया 
(निश्तर खानकाही की याद में ,आज उनकी छटी बरसी के मोक़े पर )

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