Iqbal Ahmad
ज़हन में चेहरा कोई बनता बिगड़ता रह गया =
ध्यान फिर रुखसत हुआ फिर दर्द तनहा रह गया
छत जी जानिब छुप गया फिर चाँद आधी रात का =
फिर मेरा आँगन, मेरा बिस्तर अकेला रह गया
आंधियां फिर बादबानों को उड़ा कर ले गईं =
फिर मेरी कश्ती में मेरे साथ दरया रह गया
(निश्तर खानकाही की याद में ,आज उनकी छटी बरसी के मोक़े पर )
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